शनिवार, 6 जून 2015

अरबपतियों की पहली नौकरी, कोई बेचता था अखबार तो किसी ने धोए बर्तन



न्यूजपेपर बेचने वाला खुद न्यूजपेपर की हेडलाइन बन जाए, सुनने में थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन ऐसा हुआ है। ये वो चुनिंदा लोग हैं, जो कभी न्यूजपेपर बांटते थे, तो कभी पिज्जा डिलिवरी का काम किया। लेकिन, आज सफलता इनके कदम चूमती है। कभी अपने पैसे तो कभी अपनी कंपनी को लेकर ये लोग अक्सर अखबारों की सुर्खियों में रहते हैं। इन लोगों की नौकरी की शुरुआत भले ही छोटी थी, लेकिन जुनून, लगन और मेहनत ने आज इन्हें सातवें आसमान में पहुंचा दिया।
मनी भास्कर ऐसे ही कुछ चुनिंदा लोगों की जिंदगी से जुड़ी वो बात बता रहा है, जो हैं तो अरबों रुपए के मालिक, लेकिन इन्होंने अपना करियर छोटे कामों से शुरू किया था।
Amazon.com सीईओ जेफ बिजोस
Amazon.com आज दुनिया की प्रसिद्ध ई-कॉमर्स कंपनियों में से एक है। इसके सीईओ जेफ बिजोस हैं। जेफ के लिए कहा जाता है कि जब वो टीन ऐज में थे तब सबसे पहली नौकरी उन्‍हें मैकडॉनल्‍ड में ग्रिल मैन के रूप में मिली थी। तब जैफ के पिता भी मैकडॉनल्‍ड में काम किया करते थे। बाद में उन्होंने अपनी एक्स गर्लफ्रेंड के साथ बच्चों का समर कैंप लगाने का काम शुरु किया, जिसके लिए वह एक बच्चे की फीस 600 डॉलर चार्ज करते थे। हालांकि, उनके समर कैंप में सिर्फ 6 बच्चों ने ही रजिस्ट्रेशन कराया। पोस्ट ग्रैजुएशन करने के बाद जेफ ने एक स्टार्टअप कपंनी में नौकरी मिली, लेकिन ज्यादा दिन उन्होंने नौकरी नहीं की। अपने बिजनेस माइंड सेट और स्किल्स की मदद से 1994 में उन्होंने ई-कॉमर्स कंपनी अमेजन की स्थापना की।



माइकल डेल
डेल दुनिया की प्रमुख कम्‍प्‍यूटर निर्माता कंपनी है। डेल के फाउंडर एंड सीईओ माइकल डेल का करियर एक चाइनीज रेस्‍त्रां में प्‍लेट धोने से शुरू हुआ था। उस वक्‍त वे महज 12 साल के थे। उसके बाद उन्‍हें वहीं पर पानी सर्व करने की जिम्‍मेदारी दी गई। इसके बाद उन्होंने 15 साल की उम्र में अपनी कमाई से एप्पल का कम्प्यूटर खरीदा, सिर्फ ये देखने के लिए के लिए कि हाईटेक कम्प्यूटर काम कैसे करता है। 1984 में उन्होंने डेल कंपनी को पीसी लिमिटेड के नाम से रजिस्टर कराया।


वारेन बफे
दुनिया के सबसे अमीर व्‍यक्तियों में शूमार वारेन बफे को इनवेस्टेमेंट मैन कहा जाता है। उनके लिए चर्चित है कि वो जहां भी पैसा लगाते हैं मुनाफा होता है। लोग उनसे इनवेस्टमेंट टिप्स लेते हैं, लेकिन वारेन बफे भी बचपन में न्‍यूज पेपर बेचने का काम करते थे। महज 13 साल की उम्र में वे घर-घर जाकर न्‍यूज पेपर डालते थे। आज वो अरबों रुपए का मालिक हैं। उन्होंने फोर्ब्स को दिए एक इंटरव्यू में इस बात का जिक्र किया था। उनके मुताबिक, इनवेस्टमेंट के लिए खुद का पैसा होना जरूरी था, इसलिए वो पार्ट टाइम ये काम किया करते थे।


माइकल ब्लूमबर्ग
माइकल ब्‍लूमबर्ग ग्लोबल फाइनेंशियल डाटा प्रोवाइडर और मीडिया कंपनी के फाउंडर और सीईओ हैं। उन्होंने 1973 में इसकी स्थापना की थी। उस वक्त कंपनी सिर्फ इक्विटी ट्रेडिंग का काम करती थी। माइकल का नाम हाल ही में चर्चा में आया था, जब उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर स्‍मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में साझेदारी का एलान किया था। दुनिया के अरबपतियों में शुमार माइकल ब्‍लूमबर्ग के बचपन की कहानी भी दिलचस्प है। माइकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान पार्किंग अटेंडेंट का काम भी करते थे।


चार्ल्स श्वाब
चार्ल्‍स श्वाब आज दुनिया के दौलमंदों में शुमार हैं। बचपन वे अचार और अखरोट बेचा करते थे। धीरे धीरे उन्‍होंने चिकन और अंडे बेचना भी शुरू कर दिया था। 14 साल की उम्र में उन्‍हें गोल्‍फ कोर्स में बतौर केडी काम मिल गया। आज वह दुनिया की मशहूर फाइनेंशियल सर्विस कंपनी वॉल्ट बेटिंगर के सीईओ हैं। उन्होंने ये जिम्मेदारी 2008 में संभाली थी।


एप्पल सीईओ टिम कुक
स्टीव जॉब्स के बाद टिम कुक को 1998 में एप्पल का सीईओ नियुक्त किया गया। हालांकि, कुछ लोगों को छोड़कर इससे पहले टिम कुक को ज्यादा लोग नहीं जानते थे। टिम कुक भी अपने खर्चा चलाने के लिए बचपन में न्यूजपेपर बांटते थे। एप्पल से जुड़ने से पहले टिम कुक अलबामा स्थित पेपर मिल में काम किया करते थे।



थॉमस बून पिकंस
दिग्‍गज अमेरिकी कारोबारी थॉमस बून यानी टी बून की गिनती भी दुनिया के चुनिंदा रईसों में होती है। वह अपनी बीपी कैपिटल मैनेजमेंट फंड कंपनी चलाते हैं। 1981 में उन्होंने अपनी कंपनी शुरू की थी। बता दें कि टी बून 12 साल की उम्र में पेपर बांटने जाया करते थे। बून ने कुछ समय तक बतौर ऑपरेटर भी काम किया है।




http://money.bhaskar.com/news-hf/MON-INDU-ECOM-the-first-odds-jobs-of-the-billionaires-latest-news-5014210-PHO.html

न डिग्री-न पैसा, केवल 50 रु. लेकर घर से निकला यह शख्स, अब है अरबपति





 सपने बड़े थे। लेकिन न तो डिग्री थी और न ही पैसा। मगर, कुछ करना था तो 50 रुपए जेब में डालकर घर से निकल पड़े। यह थे केरल के पालघाट में एक कृषि परिवार में जन्मे पीएनसी मेनन। मेनन के पिता केरल में छोटे से कारोबारी थे। वह जब दस साल के थे, तभी उनके पिता की मौत हो गई। इसके बाद उनके परिवार में बिजनेस संभालने वाला कोई नहीं था, क्योंकि मेनन के दादाजी अनपढ़ थे। उनकी मां भी ज्यादातर बीमार रहा करती थीं। यही वजह है कि वह बमुश्किल स्कूली शिक्षा ही ग्रहण कर सके। आज वह करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं। जब वह पहली बार बिजनेस के लिए घर से निकले, तब उनकी जेब में महज 50 रुपए थे। हम आपको बता रहे हैं कि किस तरह मेनन ने ये कामयाबी हासिल की....।
इस तरह शुरू हुआ सफर, पहली बार सुना ओमान का नाम
पीएनसी मेनन कृषि परिवार से थे। बचपन में ही तमाम दिक्कतें झेलने के कारण वह स्नातक नहीं कर सके। उनकी प्रारंभिक शिक्षा त्रिशूर में हुई थी। साल 1976 में उनकी मुलाकात ओमान से आए ब्रिगेडियर सुलेमान अल अदावी से हुई। ब्रिगेडियर उन दिनों भारत मछली पकड़ने वाली बोट खरीदने आए थे। सुलेमान ने मेनन को उनके साथ व्यवसाय शुरू करने का आश्वासन देते हुए ओमान आने का न्योता दिया। ये पहली बार था, जब मेनन ने ओमान का नाम सुना था। घर जाकर उन्होंने ओमान को ग्लोब पर खोजा। बाद में उन्होंने सुल्तान का आमंत्रण स्वीकार किया। दो महीने के भीतर उन्होंने अपना पासपोर्ट बनवाया और ओमान जाने की पूरी तैयारी कर ली। ओमान जाने के समय उनके पास सिर्फ 50 रुपए ही थे, क्योंकि उस समय ओमान जाने वाले भारतीयों को 50 रुपए से ज्यादा ले जाने की इजाजत नहीं थी। ओमान जाने के समय मेनन काफी उत्साहित थे, उनके जेहन में असफलता का भय नहीं था। उन्हें अपने आप पर भरोसा था कि ओमान जाकर कुछ न कुछ काम अवश्य कर ही लेंगे।



लोगों को लगता था, अरब में है अथाह पैसा!
उस जमाने में लोग सोचते थे कि अरब के लोग पैसों की नदी में तैरते हैं। इसी तरह की बातें मेनन ने भी सुनी थीं। लेकिन जब वह ओमान पहुंचे, तो सब कुछ उल्टा लगा। जिस सुलेमान ने मेनन को व्यवसाय शुरू करने के सपने दिखाए थे, दरअसल में वह भी एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता था। उनके पास व्यवसाय शुरू करने के लिए अधिक पैसे नहीं थे। बाद में दोनों ने मिलकर वहां के एक बैंक से शुरुआत में 3000 रियाल का कर्ज लिया। मेनन ने सुल्तान के साथ मिलकर इंटीरियर डेकोरेशन का काम शुरू किया। शुरू-शुरू में उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। पांच चीजें उन्हें कभी-कभी ज्यादा निराश करती थीं। व्यवसायिक शिक्षा का अभाव, आर्थिक रूप से कमजोर, नए भौगोलिक क्षेत्र में व्यवसाय शुरू करना, पहचान की कमी और भाषा की जानकारी। लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया। मेहनत करना उनकी खूबी थी और दिन-रात मेहनत करने लगे।
पांच साल की मेहनत के बाद ओमान के टॉप चार व्यवसायियों में हुई गिनती
पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद साल 1984 में मेनन ओमान में टॉप चार व्यवसायियों में गिने जाने लगे। 1986-87 में उनकी 'द सर्विस एंड ट्रेड ग्रुप ऑफ कंपनीज' ओमान की टॉप परफॉर्मिंग कंपनियों में शामिल हो गई। यह कंपनी आज भी ओमान के बाजार में नंबर वन पर है। साथ ही, मेनन 2007-08 में फोर्ब्स द्वारा जारी की गई बिलिनेयर की फेहरिस्त में भी शामिल रह चुके हैं। मेनन की कुल संपत्ति 1.25 बिलियन डॉलर आंकी गई।

भारत में भी शुरू किया कारोबार
मेनन ने भारत में अपने व्यवसाय की शुरुआत बेंगलुरु से की। भारत में उन्होंने अपनी पत्नी शोभा के नाम पर 'शोभा डेवलपर्स' की शुरुआत की। इस कंपनी का टर्नओवर करीब 1500 करोड़ रुपए है। भारत में शोभा डेवलपर्स के प्रोजेक्ट्स 12 राज्यों में चल रहे हैं। शोभा डेवलपर्स 2006 में बांबे शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुई। भारत और खाडी देशों में कंपनी के करीब 2,800 कर्मचारी हैं। मेनन शोभा रीयल्टी कंपनी के मानद अध्यक्ष हैं। मेनन ने बताया कि कंपनी भारत और खाड़ी देशों में अपना परिचालन बढाने की योजना बना रही है।

जनकल्याण के कामों से भी जुड़े हैं मेनन
मेनन जनकल्याण के कामों से भी जुड़े हुए हैं। केरल के किजाकेंचेरी में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्कूल, सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल और फाइव स्टार वृद्धा आश्रम का निर्माण करवाया है। उनके हॉस्पिटल में पिछले सात सालों में लगभग 3000 से ज्यादा गरीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों के स्वास्थ्य का चेकअप, उनके बच्चों की पढ़ाई और वृद्धों को सहारा दिया गया। उनकी कंपनी द्वारा सीएसआर प्रोजेक्ट के अंतर्गत लगभग 2500 गरीब परिवारों को एडॉप्ट किया गया। जिन्हें मुफ्त खाना, आवास, शिक्षा, लड़कियों की शादी एवं बुजुर्गों के लिए वृद्धा आवास की सुविधाएं दी गई हैं।
भारत में खोलेंगे शिक्षण संस्थाएं
मेनन ओमान और भारत में शिक्षण संस्थाएं खोलने की योजना बना रहे हैं। उनका मानना है, जब आप ढेर सारी दौलत कमा लेते हैं, तो आपको सारा पैसा अपने परिवार पर ही खर्च करना नहीं करना चाहिए बल्कि इसका बड़ा हिस्सा समाज की भलाई में लगाना चाहिए। वह इसे परमार्थ कार्य नहीं, बल्कि समाज के प्रति जबावदेही मानते हैं।




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मंगलवार, 2 जून 2015

अरबों की संपत्ति के मालिक हैं ये नाई, आज भी काटते हैं लोगों के बाल


फोटोः बेंगलुरु के रहने वाले रमेश बाबू, चलाते हैं अपना सैलून
रतन टाटा, मुकेश अंबानी, मार्क जुकरबर्ग जैसी बड़ी हस्तियों का नाम आज दुनिया में कौन नहीं जानता। लेकिन इन नामचीन लोगों के बीच कईं नाम ऐसे हैं जिन्हें कम ही लोग जानते हैं। ये वो लोग हैं, जिन्होंने अपनी मेहनत के दम पर सफलता हासिल की। बेंगलुरु के रमेश बाबू भी इन्हीं लोगों में एक हैं। कभी वो मामूली नाई हुआ करते थे, लेकिन अपनी दूरदृष्टि, मेहनत और लगन से आज अरबों के मालिक हैं। इनके पास रोल्स रॉयस, मर्सडीज, बीएमडब्ल्यू और ऑडी जैसी लग्जरी कारों का काफिला है।

रमेश बाबू
रमेश बाबू की उम्र है 43 साल। बेंगलुरु के अनंतपुर के रहने वाले रमेश जब 7 साल के थे, तभी उनके पिता गुजर गए। पिता बेंगलुरु के चेन्नास्वामी स्टेडियम के पास अपनी नाई की दुकान चलाते थे। पिता की मौत के बाद रमेश बाबू की मां ने लोगों के घरों में खाना पकाने का काम किया, ताकि बच्चों का पेट भर सकें। उन्होंने अपने पति की दुकान को महज 5 रुपए महीना पर किराए पर दे दिया था।
शुरू की टूर एंड ट्रेवल्स कंपनी
रमेश बाबू तमाम कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई करते थे। 12वीं क्लास में असफल होने के बाद उन्होंने इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट से इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा किया। 1989 में उन्होंने पिता की दुकान वापस लेकर उसे नए सिरे से चलाया। इस दुकान को मॉडर्न बनाकर उन्होंने खूब पैसे कमाए और एक मारुति वैन खरीद ली। चूंकि वह कार खुद नहीं चला पाते थे, इसलिए उन्होंने कार को किराए पर देना शुरू कर दिया। 2004 में उन्होंने अपनी कंपनी रमेश टूर एंड ट्रेवल्स की शुरुआत की।



आज रमेश बाबू के पास 256 कारों का काफिला है। इनमें 9 मर्सडीज, 6 बीएमडब्ल्यू, एक जगुआर और तीन ऑडी कारें हैं। वह रॉल्स रॉयस जैसी महंगी कारें भी चलाते हैं जिनका एक दिन का किराया 50,000 रुपए तक है। रमेश बाबू के पास 60 से भी ज्यादा ड्राइवर हैं। लेकिन आज भी उन्होंने अपना पुश्तैनी काम नहीं छोड़ा। वह आज भी अपने पिता के सैलून इनर स्पेस को चला रहे हैं, जिसमें वो हर दिन 2 घंटे ग्राहकों के बाल काटते हैं।
अमिताभ से लेकर शाहरुख तक हैं उनके क्लाइंट
लग्जरी टैक्सी सर्विस शुरू करने के बाद से रमेश बाबू के क्लाइंट की लिस्ट बढ़ती गई। अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन से लेकर शाहरुख खान जैसी बॉलीवुड सेलेब्रिटी भी उनकी क्लाइंट लिस्ट में शामिल हैं।




कोलकाता और मुंबई से आते हैं क्लाइंट
रमेश बाबू रोज सुबह साढ़े 5 बजे अपने गैराज में जाते हैं। वहां गाड़ियों की देखरेख, बुकिंग की जानकारी लेकर साढ़े 10 बजे अपने ऑफिस पहुंचते हैं। पूरे दिन क्लाइंट और बिजनेस में बिजी रहने के बाद शाम को 5-6 बजे के बीच वह अपने सैलून जरूर जाते हैं। यहां भी उनके खास क्लाइंट उनका इंतजार कर रहे होते हैं। रमेश बाबू के मुताबिक, उनके ज्यादातर क्लाइंट्स बाल कटाने कोलकाता और मुंबई से आते हैं।



बच्चों को भी दे रहे हैं कटिंग टिप्स
रमेश बाबू अपनी दोनों बेटियों और एक बेटे को भी सैलून का काम सीखा रहे हैं। वो रोजाना बतौर टीचर उन्हें कटिंग टिप्स देते हैं। रमेश बाबू का कहना है कि यह एक तरह की जॉब है, जिसमें प्रोफेशनल होना जरूरी है। वो उन्हें अपने साथ सैलून भी ले जाते हैं, लेकिन अभी छोटी उम्र होने के कारण उन्हें वहां काम नहीं दिया जाता।



विजयवाड़ा में वेंचर खोलने की प्लानिंग
रमेश बाबू का अगला टारगेट दूसरे शहरों में अपना बिजनेस बढ़ाने की है। वो अपने सैलून और टैक्सी सर्विस को विजयवाड़ा में शुरू करने की प्लानिंग कर रहे हैं। उनका मानना है कि ऐसे शहरों में संभावनाएं हैं। इसलिए फोकस इन्हीं शहरों पर है। हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में बिजनेस की सफलता के लिए काफी वक्त लगता है, लेकिन छोटे शहरों में आपके पास कई विकल्प होते हैं।


http://money.bhaskar.com/news/MON-MARK-FORX-the-rags-to-riches-story-of-a-billionaire-barber-ramesh-babu-5008481-PHO.html

कबाड़ से खड़ी की करोड़ों की कंपनी, अब विदेश में सप्लाई होते हैं इनके प्रोडक्ट

फोटोः जोधपुर के रहने वाले रितेश लोहिया

 कबाड़ को कबाड़ समझकर हम उसकी ओर ध्यान नहीं देते। कई बार चंद पैसों के लिए किसी कबाड़ी को बेच देते हैं या फिर घर के किसी कोने में पड़ा रहता है। लेकिन, पश्चिमी राजस्थान में जोधपुर शहर के रहने वाले रितेश लोहिया ने इसकी कीमत पहचानी। अपनी पत्नी के साथ मिलकर मंदी के दौर में कबाड़ से सामान बनाने की छोटी सी शुरुआत की। एक प्रोडक्शन कंपनी शुरू की, जिसमें वह कबाड़ से कुर्सियां, अलमारी, स्टूल, मेज, बैग बनाने लगे। आज उनका कारोबार 35 करोड़ रुपए का हो गया है। एक छोटे से आइडिया से उन्होंने इतना बड़ा कारोबार खड़ा कर लिया है, कि उनके प्रोडक्ट की डिमांड विदेशों तक है। आइए हम बताते हैं कि उन्हें ये आइडिया कैसे मिला....
कौन हैं लोहिया दंपति
प्रीति इंटरनेशनल के मालिक रितेश लोहिया (39) और सहकर्मी पत्नी प्रीति (37) जोधपुर में रहते हैं। शुरुआत में इनका हैंडीक्राफ्ट का व्यापार था, लेकिन कबाड़ से उत्पाद बनाने का आइडिया मिलने के बाद चीजें बदल गईं। अब वह फर्नीचर हैंडीक्राफ्ट बिजनेस पर ध्यान भी नहीं दे रहे हैं। अब दोनों हर वक्त कबाड़ के जुगाड़ में लगे रहते हैं। उनकी फर्म का व्यवसाय जो साल 2009 से पहले 16 करोड़ रुपए सालाना का था, अब 35 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है।
ऐसे हुई शुरुआत, यूं मिला आइडिया
साल 2009 में व्यावसायिक मंदी चरम पर थी। सभी छोटे-बड़े व्यापारियों पर इसकी मार पड़ रही थी। फर्नीचर हैंडीक्राफ्ट्स का निर्यात करने वाली प्रीति इंटरनेशनल पर भी इसका प्रभाव पड़ा। उन्हीं बुरे दिनों में लोहिया दंपति के पास एक दिन डेनमार्क से एक ग्राहक आया। वह गोदाम में फर्नीचर देख रहा था कि उसकी नजर एक टिन पर पड़ी। गलती से किसी मजदूर ने उस पर कपड़े से बनी गद्दी रख दी थी। दूर से देखने पर वह किसी खास किस्म की कुर्सी नजर आ रही थी। ग्राहक को वह आइडिया इतना भाया कि उसने लोहिया दंपति से बेकार चीजों से ऐसे उत्पाद बनाने की राय दे डाली। बस फिर क्या था, लोहिया दंपति ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया। टिन का कबाड़ बटोरा गया और हजारों की संख्या में जुगाड़ से बने स्टूल विदेश भेजे जाने लगे। आज हालात ये हैं कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की मांग वह पूरी भी नहीं कर पा रहे हैं।
ऐसी कुर्सियां सबसे ज्यादा डिमांड में
घी या तेल के डिब्बों पर न कोई पेंट, न रंगरोगन। कपड़े की गद्दी बनाकर उस पर चिपकाई जाती है। रितेश के मुताबिक यह आइटम काफी डिमांडिंग है। वह कहते हैं कि पहले कबाड़ी 30 रुपए में टिन के ऐसे डिब्बे दे देते थे, लेकिन अब 100 रुपए में भी नहीं देते। हालांकि, वह मानते हैं कि यह अच्छा ही है। इससे कबाड़ियों की भी आमदनी बढ़ी है।






ये बनाते हैं उत्पाद
रितेश की कंपनी में सोफा, कुर्सियां, बार कुर्सी/टेबल, आलमारी, दरी, कारपेट, बेडशीट, तकिए जैसे तमाम घरेलू उत्पाद बनाए जाते हैं। लोहे, लकड़ी और जूट से बनी ये चीजें रितेश अपनी बोरानाडा स्थित यूनिट में तैयार करते हैं। जोधपुर के पास बासनी में उन्होंने अपनी एक और यूनिट लगा दी है, जहां टेक्सटाइल संबंधित उत्पाद बनते हैं। इनकी डिजाइन उनकी पत्नी प्रीति तैयार करती हैं। इस फर्म को हाल ही में कोरिया से 2,000 दरियों का ऑर्डर मिला है।
डिमांड कुछ ऐसी की अगर नहीं है कबाड़ , तो बनाना पड़ता है कबाड़ जैसे
वह कहते हैं विदेशों में ऐसी चीजों की जर्बदस्त मांग है। ऐसा भी होता है कि कभी कबाड़ वाली चीजें नहीं मिलतीं, तो नए सामान को ही कबाड़ की शक्ल देनी पड़ती है। रितेश को दरियों के ऑर्डर पूरा करने के लिए सेना के टेंट और दूसरे कपड़े नीलामी के दौरान खरीदने पड़े। मजदूरों से उन कपड़ों की कतरनें बनवाई गईं। माल और मजदूरी के बाद एक दरी पर खर्च आया तकरीबन 500 रुपए। जबकि कोरिया में एक-एक दरी की कीमत 2,000 रुपए मिलती है। रितेश की फर्म ऐसे सामान के हर महीने 35 कंटेनर उत्पाद अमेरिका, यूरोप, सिंगापुर, कोरिया, जर्मनी जैसे देशों में भेजती है। ऐसे हर उत्पाद पर एक टैग लगा होता है, जिस पर उत्पाद के निर्माण की पद्धति की पूरी जानकारी होती है।







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