मंगलवार, 2 जून 2015

कबाड़ से खड़ी की करोड़ों की कंपनी, अब विदेश में सप्लाई होते हैं इनके प्रोडक्ट

फोटोः जोधपुर के रहने वाले रितेश लोहिया

 कबाड़ को कबाड़ समझकर हम उसकी ओर ध्यान नहीं देते। कई बार चंद पैसों के लिए किसी कबाड़ी को बेच देते हैं या फिर घर के किसी कोने में पड़ा रहता है। लेकिन, पश्चिमी राजस्थान में जोधपुर शहर के रहने वाले रितेश लोहिया ने इसकी कीमत पहचानी। अपनी पत्नी के साथ मिलकर मंदी के दौर में कबाड़ से सामान बनाने की छोटी सी शुरुआत की। एक प्रोडक्शन कंपनी शुरू की, जिसमें वह कबाड़ से कुर्सियां, अलमारी, स्टूल, मेज, बैग बनाने लगे। आज उनका कारोबार 35 करोड़ रुपए का हो गया है। एक छोटे से आइडिया से उन्होंने इतना बड़ा कारोबार खड़ा कर लिया है, कि उनके प्रोडक्ट की डिमांड विदेशों तक है। आइए हम बताते हैं कि उन्हें ये आइडिया कैसे मिला....
कौन हैं लोहिया दंपति
प्रीति इंटरनेशनल के मालिक रितेश लोहिया (39) और सहकर्मी पत्नी प्रीति (37) जोधपुर में रहते हैं। शुरुआत में इनका हैंडीक्राफ्ट का व्यापार था, लेकिन कबाड़ से उत्पाद बनाने का आइडिया मिलने के बाद चीजें बदल गईं। अब वह फर्नीचर हैंडीक्राफ्ट बिजनेस पर ध्यान भी नहीं दे रहे हैं। अब दोनों हर वक्त कबाड़ के जुगाड़ में लगे रहते हैं। उनकी फर्म का व्यवसाय जो साल 2009 से पहले 16 करोड़ रुपए सालाना का था, अब 35 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है।
ऐसे हुई शुरुआत, यूं मिला आइडिया
साल 2009 में व्यावसायिक मंदी चरम पर थी। सभी छोटे-बड़े व्यापारियों पर इसकी मार पड़ रही थी। फर्नीचर हैंडीक्राफ्ट्स का निर्यात करने वाली प्रीति इंटरनेशनल पर भी इसका प्रभाव पड़ा। उन्हीं बुरे दिनों में लोहिया दंपति के पास एक दिन डेनमार्क से एक ग्राहक आया। वह गोदाम में फर्नीचर देख रहा था कि उसकी नजर एक टिन पर पड़ी। गलती से किसी मजदूर ने उस पर कपड़े से बनी गद्दी रख दी थी। दूर से देखने पर वह किसी खास किस्म की कुर्सी नजर आ रही थी। ग्राहक को वह आइडिया इतना भाया कि उसने लोहिया दंपति से बेकार चीजों से ऐसे उत्पाद बनाने की राय दे डाली। बस फिर क्या था, लोहिया दंपति ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया। टिन का कबाड़ बटोरा गया और हजारों की संख्या में जुगाड़ से बने स्टूल विदेश भेजे जाने लगे। आज हालात ये हैं कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की मांग वह पूरी भी नहीं कर पा रहे हैं।
ऐसी कुर्सियां सबसे ज्यादा डिमांड में
घी या तेल के डिब्बों पर न कोई पेंट, न रंगरोगन। कपड़े की गद्दी बनाकर उस पर चिपकाई जाती है। रितेश के मुताबिक यह आइटम काफी डिमांडिंग है। वह कहते हैं कि पहले कबाड़ी 30 रुपए में टिन के ऐसे डिब्बे दे देते थे, लेकिन अब 100 रुपए में भी नहीं देते। हालांकि, वह मानते हैं कि यह अच्छा ही है। इससे कबाड़ियों की भी आमदनी बढ़ी है।






ये बनाते हैं उत्पाद
रितेश की कंपनी में सोफा, कुर्सियां, बार कुर्सी/टेबल, आलमारी, दरी, कारपेट, बेडशीट, तकिए जैसे तमाम घरेलू उत्पाद बनाए जाते हैं। लोहे, लकड़ी और जूट से बनी ये चीजें रितेश अपनी बोरानाडा स्थित यूनिट में तैयार करते हैं। जोधपुर के पास बासनी में उन्होंने अपनी एक और यूनिट लगा दी है, जहां टेक्सटाइल संबंधित उत्पाद बनते हैं। इनकी डिजाइन उनकी पत्नी प्रीति तैयार करती हैं। इस फर्म को हाल ही में कोरिया से 2,000 दरियों का ऑर्डर मिला है।
डिमांड कुछ ऐसी की अगर नहीं है कबाड़ , तो बनाना पड़ता है कबाड़ जैसे
वह कहते हैं विदेशों में ऐसी चीजों की जर्बदस्त मांग है। ऐसा भी होता है कि कभी कबाड़ वाली चीजें नहीं मिलतीं, तो नए सामान को ही कबाड़ की शक्ल देनी पड़ती है। रितेश को दरियों के ऑर्डर पूरा करने के लिए सेना के टेंट और दूसरे कपड़े नीलामी के दौरान खरीदने पड़े। मजदूरों से उन कपड़ों की कतरनें बनवाई गईं। माल और मजदूरी के बाद एक दरी पर खर्च आया तकरीबन 500 रुपए। जबकि कोरिया में एक-एक दरी की कीमत 2,000 रुपए मिलती है। रितेश की फर्म ऐसे सामान के हर महीने 35 कंटेनर उत्पाद अमेरिका, यूरोप, सिंगापुर, कोरिया, जर्मनी जैसे देशों में भेजती है। ऐसे हर उत्पाद पर एक टैग लगा होता है, जिस पर उत्पाद के निर्माण की पद्धति की पूरी जानकारी होती है।







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